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जय घोर जय अघोर जय भवानी
नाग चक्र रहस्य भाग 1
उसका साक्षात्कार करके भी, वह अपने पूर्णस्वरूप में अवर्णनीय ही है।
ग्रंथों और महावाक्यों में सूक्ष्मरूप में दर्शाए जाने पर भी, वह ग्रंथातीत है।
मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राणों से वह अतीत है, यह सब उसको नहीं जानते हैं।
स्वयं ही स्वयं में वह बोधगम्य होता हुआ भी, शब्दों से परे है, शब्दातीत है।
वह योगमार्ग से जाना तो जा सकता है लेकिन उसका पूर्णवर्णन असंभव ही है।
पिण्ड ब्रह्माण्ड में व्यापक होता हुआ भी, उसको न पिण्ड जानता है, न ही ब्रह्माण्ड ।
चित्त के प्रपंचों से परे, वह संस्कार रहित है, वही संस्कारातीत है, वही चिदाकाश है।
वह संकुचित अहंकार से परे है, वह विशुद्ध विश्वरूप अहम् है, वही अहमाकाश है।
बुद्धि से परे, निष्कलंक ज्ञान विज्ञान रूप में वह पूर्णस्थित है, वही ज्ञानाकाश है।
मन की सदैव गतिशील दशा से वह परे है, वह पूर्णस्थिर ही है, वही मनाकाश है।
प्राणों के खण्डित स्वरूप से परे, वह सार्वभौम एकसत्ता ही है, वही प्राणाकाश है।
वही ज्ञानात्मक, चिदात्मक, अहमात्मक, मनात्मक है, और वही भी प्राणात्मक है।
वही सर्वाभिव्यक्ता है, सर्वमूल सर्वगंतव्य है, वही सर्व रूपों में भी अभिव्यक्त हुआ है।
उसी को एकेश्वर कहा गया है, वही एकेश्वरी भी है, वह लिंगादि भेद से अतीत है।
उसको प्राप्त किया ही नहीं जाता, क्यूंकि वह कर्मों और कर्मफलों से अतीत है।
वह एकेश्वर जो एकेश्वरी भी है, लिंगातीत है, उसको केवल प्राप्त हुआ जाता है।
जो तुम अपनी वास्तविकता में अनादि कालों से हो, उसको प्राप्त कैसे करोगे ।
उसको प्राप्त होने का मार्ग अनुग्रह सिद्धि है... ऐसा योगी, अनुग्रह सिद्ध है।
अनुग्रह सिद्धि से ही उस निर्गुण निराकार स्वः प्रकाश को जाना जाता है।
जो उसके अनुग्रह में ही नहीं आया है, वह उसको प्राप्त भी नहीं होगा।
अधिकांश अनुग्रह सिद्ध, उसको जानकार देहवसान को ही पाते हैं।
इसलिए महाब्रह्माण्ड में उसके जीवित ज्ञाता, अतिदुर्लभही हैं।
ब्रह्म साक्षात्कारी भी ब्रह्म ही होता है।
तुम वही हो जिसका तुमनें साक्षात्कार किया है।
जो उस ब्रह्म को जानता है, वह भी वही ब्रह्म हो जाता है
ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता होता है,... ब्रह्म का ज्ञाता ही ब्रह्म होता है।
यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म ही हो जाओ।
अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म हुए बिना, ब्रह्म को जाना ही नहीं जा सकता है।
जो योगी ब्रह्म को एक बार जान गया, वो अनादि कालों तक ब्रह्म ही कहलाता है।
निर्गुण निराकार स्वः प्रकाश का साक्षात्कार भी, अपनी काया के भीतर ही होता है।
इस साक्षात्कार में, साधक का आत्मस्वरूप ही निर्गुण निराकार स्वः प्रकाश होता है।
इसलिए यदि निर्गुण निराकार स्वः प्रकाश को जानना है, तो "स्वयं ही स्वयं में" जा ।
इस मार्ग में योगी अपने आत्मस्वरूप में ही निर्गुण निराकार स्वः प्रकाश को पाएगा।
इस मार्ग के अंत में योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, ब्रह्म ही होगा।
यह आंतरिक मार्ग जो स्वयं ही स्वयं में जाता है, वह ब्रह्मपद ही प्रदान करता है।
तू भी स्वयं ही स्वयं में जा, और अंततः वह निर्गुण निराकार स्वः प्रकाश ही हो जा ।
जो साधक पात्र हो गया, उसके गुरु उसके समक्ष स्वयं ही आ जाएंगे।
पात्र को ही गुरु मिलते हैं... जो पात्र नहीं हुआ, उसको गुरु भी नहीं मिलेंगे।
जो गंतव्यमार्ग का पात्र हो गया, उसको अपनी काया में ही गुरु मिलेंगे।
जो किसी बिंदु का पात्र नहीं हुआ है, उसको उसका ज्ञान का मार्ग नहीं देना चाहिए।
इस ब्रह्मरचना के संपूर्ण इतिहास में, केवल पगले ही सिद्ध हुए हैं।
जो पूर्णरूपेण पगला नहीं होता, वह सिद्ध भी नहीं होता
और तुम तो उन सभी पगलों में भी महापागल ही हो।
सूत्र
जय घोर जय अघोर जय भवानी
आपका मणिपुर चक्र सबसे मजबूत चक्र कैसे है?
जब हम कुंडलिनी साधना कर रहे होते है तब एक समय ऐसा आता है जब हम बहुत ज्यादा सेंसटिव हो जाते है। हमारे चक्र इस तरह से एक्टिव हो जाते है कि बाहरी नेगेटिव विचार तक हम पर असर डालने लगते है।
यह ऐसा समय होता है कि हमें खुद का बहुत अधिक ख्याल रखना होता है। जब भी हम अपने घर से बाहर निकलते है तो हमारे चक्रों का खराब होने के चांसेज अधिक हो जाते है। इसका सबसे बड़ा खतरा यह होता है इसका सीधा असर पहले हमारी मेंटल हेल्थ पर पड़ता है और उसके बाद इसका असर हमारी फिजिकल हेल्थ पर पड़ता है।
इसे रोके कैसे ?
जब हम ध्यान करते है तो हमे दोनों आंखों के बीच कुछ रंगों की लाइट्स दिखाई देती है। एक ब्ल्यू रंग की रोशनी भी अक्सर हमें ध्यान के दौरान दिखाई देती हैं।
यह वही नीली लाइट है जिसकी मदद से हम आपने औरा को यानि अपने चारों ओर के आभामंडल को प्रोटेक्ट कर सकते है।
इस तरह से प्रोटेक्ट करे अपना औरा
अपने घर से निकलने से पहले यह करें।
किसी भी आरामदायक आसान में बैठ जाए।
5 लंबी और गहरी सांसे ले।
अब दोनों आंखों के बीच अपना ध्यान लेकर जाएं और थोड़ी देर वहां ध्यान करे।
अब महसूस करें कि नीले रंग का प्रकाश आपके सहस्त्रार चक्र के माध्यम से आपके शरीर में प्रवेश कर रहा है।
अब महसूस करे कि इस प्रकाश ने आपके पूरे शरीर को चारों तरफ से घेर लिया है।
इस स्थिति को 5 मिनट तक बनाएं रखें।
अब धीरे से अपनी आंखे खोल ले और खुद को प्रोटेक्टेड महसूस करे।
सूत्र
जय घोर जय अघोर जय भवानी
कुंडलिनी एक ऐसी शक्ति है जो आपके जीवन की दिशा को बदल कर आपको आध्यात्मिक बना सकती है। यह अदृश्य शक्ति सीधेतौर पर हमारे अदृश्य मन कर असर डालती है। हम भी इस शक्ति को अदृश्य एकाग्रता और अदृश्य चेतना के माध्यम से जागृत कर सकते है।
सब कुछ अदृश्य है। इसलिए इस शक्ति पर कार्य आरम्भ करने से पहले इस शक्ति के बारे में जान लेना आवश्यक है।
कुंडलिनी के बारे ने जरूरी तथ्य
यह एक अदृश शक्ति है।
यह सुषुम्ना नाम की नाड़ी में बह सकती है।
इसका निवास स्थान मूलाधार चक्र पर सुषुम्ना के मुहाने पर है।
यह शक्ति हर मानव में विद्यमान है फिर चाहे वो किसी भी देश का या किसी भी धर्म का हो।
इसे जगाने के लिए सबसे पहले एकाग्रता तो चाहिए ही लेकिन एकाग्रता के साथ शुद्ध मन भी आवश्यक रूप से चाहिएं।
इस शक्ति के जागृत होने पर शरीर में और मन में कई प्रकार के बदलाव होते है।
यह शक्ति जब जागृत होती है तो आपके विचार, आपके सोचने का ढंग, आपका खानपान, आपका व्यवहार सबकुछ बदल देती है।
इस शक्ति के जागृत होने पर कई बार शरीर में झटके महसूस होते है।
कई बार ऐसा भी देखा गया है कि साधक का आधा शरीर ठंडा और आधा गर्म हो जाता है।
इस शक्ति को केवल और केवल गुरु की देख रेख में ही जागृत करना चाहिएं।
कुंडलिनी जागरण की साधना नियमित रूप से करनी चाहिए। साधना अगर टूट जाए तो इसके परिणाम जल्दी नहीं मिलते।
कुंडलिनी जागरण में शरीर में उत्पन्न ऊर्जा को संतुलित करने के लिए पांच तत्वों के माध्यम से अतिरिक्त ऊर्जा को बाहर भेजा जाता है। इसे आम भाषा में earthing भी कहते है।
कुण्डलिनी साधना के दौरान हरित ऊर्जा यानि वृक्ष हमारी अत्यधिक सहायता कर सकते है। इसलिए गुरु के माध्यम से जानना चाहिए कि किस पेड़ से ऊर्जा का आदान प्रदान करना है और कैसे करना है।
शुरुआत में इस साधना में हीलिंग की भी आवश्यकता पड़ सकती है।
इस साधना का सबसे मुश्किल भाग आज्ञा चक्र से सहस्रार चक्र का मार्ग है।
कई बार मन में विचित्र विचार भी पैदा होने लगते है।
कुण्डलिनी जागरण का मुख्य बिंदु चेतना है। चेतना अगर जागृत नहीं हुई तो फिर आगे बढ़ ही नहीं सकते।
कुंडलिनी साधना से हम कई बार अन्य लोकों से भी जुड़ जाते है।
इसमें चक्र जागृत नहीं करने होते बल्कि चक्रों को संतुलित करना होता है।
बिना गुरु के सानिध्य में यह साधना कदापि नहीं करे।
इस प्रकार से गुरु ही निर्णय लेगा कि किस को कुंडलिनी साधना करनी चाहिए और किस को नहीं।
गुरु ही निर्णय लेगा कि किस प्रक्रिया से साधना शुरू होगी और कैसे यह साधना आगे बढ़ेगी।
सूत्र
जय घोर जय अघोर जय भवानी
भारत की प्राचीन विद्याओ में एक
सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति
लक्ष्मण रेखा का असली नाम सोमतिती विद्या है। यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था।
महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है- सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति।।
यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है। वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है, कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है।
जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा- राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है? महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है, इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है।
यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा। यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है। उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी।
महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में, महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में, महर्षि भारद्वाज के यहां और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में। श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था, एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था।
सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति- इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है। फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें। उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा। जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो। ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी।
महर्षि दधीचि, महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे। श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे, उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी। ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे।
इस समय इस विद्या को जानने वाले एक मात्र संत परमहंस त्रिजटा अघोरी जी है,जो अपने दोनों शिष्यों को इस महाविद्या को प्रदान कर इस विद्या में उनको पूर्ण शक्ति को प्रदान किया l
सूत्र